लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी-समस्या का यही है समाधान?
राजस्थान कोर्ट की राय सुनकर मैं खुद ही अचकचा गयी थी। जहाँ प्रचण्ड नारी विरोधी मान्यताएँ और सनातन संस्कृति फल-फूल रही हो, जिस राज्य में, अन्यान्य राज्यों की तुलना में औरत की आज़ादी कम है, ऐसे राज्य, राजस्थान में अदालत की राय अविश्वसनीय भले हो, मगर ऐसी घटना सचमुच घटी है। राय दी गयी है-पति की अनिच्छा के बावजूद वयस्क विवाहिता लड़की को अधिकार है कि वह अपने प्रेमी के साथ रहे। मंजू नामक एक लड़की इन दिनों अपने प्रेमी, सुरेश के साथ रहने लगी है, अपने पति के साथ नहीं। इसलिए कोर्ट के दो जजों, जी.सी. मिश्र और के.सी. शर्मा ने यह राय दी है कि किसी भी औरत को सामग्री के तौर पर इस्तेमाल करने का अधिकार किसी को भी नहीं होना चाहिए।
विवाह नामक संस्था पर, वाकई यह राय ज़बर्दस्त प्रहार है। किसी भी संस्था में इतने अर्से तक इतनी मार-काट नहीं चली, जितनी इस विवाह नामक संस्था में! किसी भी संस्था में दरार पड़ती है, इसके बावजूद कुछ दिनों तक टिमटिमाती रहती है और फिर किसी समय दप् से बुझ जाती है। विवाह में न तो कोई टिमटिमाहट है, न बुझना है। हिप्पियों के ज़माने में वही सन आठ के दशक में, एक बार लाल बत्ती जली ज़रूर थी, वह भी पूर्व में नहीं, पश्चिम में नहीं। पश्चिम के लड़के-लड़कियों ने विवाह करना ही बन्द कर दिया था। वही लाल बत्ती, सन् अस्सी के दशक में आ कर, हरे रंग में परिणत होने लगी। रक्षणशीलता राक्षस की शक्ल में, एक-एक कदम करके यूरोप की ओर बढ़ने लगी। पूर्व में तो दैत्यों की हमेशा से ही जय-जयकार होती रही है।
आज इसी पूर्व में, भारतवर्ष में बैठे-बैठे अदालत की राय सुन रही हूँ-'किसी भी नारी को, उसकी मर्जी के खिलाफ़, किसी के साथ रहने के लिए ज़ोर-ज़र्बदस्ती नहीं होनी चाहिए।' वक़्त जैसे अचानक सौ साल आगे बढ़ गया है। लेकिन असल में कुछ भी आगे नहीं बढ़ा। बल्कि यह राय, वर्तमान समाज के चरित्र से बेहद बेमेल लगती है। देश की किसी अदालत में, अगर किसी शुभ-बुद्धि सम्पन्न न्यायाधीश अचानक ऐसी कोई चमत्कारी राय दे बैठे जो समाज की किसी भी चीज़ से मेल न खाती हो, तो इसमें नाच उठने की क्या बात है? जो मंजू अब अपने प्रेमी के साथ रहने-सहने लगी है, वह मंजू क्या वाक़ई चैन से रह रही होगी? लोग क्या उसे अकथ्य भाषा में दिन-रात गाली-गलौज नहीं करते होंगे? अगर कहीं वह मिल गयी तो पीट-पीटकर उसे लाश बना देंगे, क्या ऐसी धमकी उसे नहीं दी जा रही है? बदचलन लड़की, भ्रष्ट लड़की, फाहशा लड़की, वेश्या लड़की-उठते-बैठते क्या ये गालियाँ उसे नहीं सुनना पड़ती होंगी? हम सब बखूबी अन्दाज़ा लगा सकते हैं कि मंजू भयंकर असुरक्षा में घिरी, सिमटी-सिकुड़ी पड़ी होगी। ऐसी हालत में वह अपने प्रेम का जीवन, मामूली तौर पर भी नहीं जी पा रही होगी। सुरेश का प्रेम भी क्या ज़्यादा दिन टिका रह सकेगा? किसी दूसरे की बीवी को अपने घर ला बिठाने की वजह से, उसे भी क्या कम ताने-व्यंग्य नहीं सुनने पड़ते होंगे? अड़ोसी-पड़ोसी, आत्मीय-स्वजन ज़रूर छिः छिः कर रहे होंगे। ऐसे लांछन, लानत-मलामत और व्यंग्य-विद्रूप के बीच, इन्सान आखिर कितने दिनों तक रह सकता है? चलो मान लिया कि औरतें रह सकती हैं, उन लोगों को इन सबकी आदत होती है। ज़िन्दगी भर औरतों को यही सिखाया भी जाता है कि वे लोग आख़िरी साँसों तक सहें, सहती रहें, लेकिन पुरुष तो वह सब करता है, जो शान से सीना तानकर चलने के लिए जरूरी होता है। सुरेश भी पुरुष है, ज़्यादा परेशानी हुई तो वह किसी भी पल प्रेमी के मुखौटे से बाहर निकल आयेगा। अब सुरेश अगर मंजू को त्याग दे, तो? तब मंजू किसकी शरण में जायेगी? या तो वह अपने पुरुष-पति के पास लौट जायेगी या फिर किसी दूसरे पुरुष-प्रेमी का आश्रय लेगी। इसके अलावा और क्या?
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- इतनी-सी बात मेरी !
- पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
- बंगाली पुरुष
- नारी शरीर
- सुन्दरी
- मैं कान लगाये रहती हूँ
- मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
- बंगाली नारी : कल और आज
- मेरे प्रेमी
- अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
- असभ्यता
- मंगल कामना
- लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
- महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
- असम्भव तेज और दृढ़ता
- औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
- एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
- दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
- आख़िरकार हार जाना पड़ा
- औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
- सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
- लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
- तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
- औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
- सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
- जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
- औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
- औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
- आत्मघाती नारी
- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं